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पाकिस्तान की हिमाकत पर कोई हैरानी नहीं

बलबीर पुंज
समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि भगत सिंह “मुसलमानों के प्रति शत्रुतापूर्ण मजहबी नेताओं से प्रभावित थे और भगत सिंह फाउंडेशन इस्लामी विचारधारा और पाकिस्तानी संस्कृति के खिलाफ काम कर रहा है, (और) इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए।” बकौल रिपोर्ट, “फाउंडेशन के अधिकारी जो खुद को मुस्लिम कहते हैं, क्या वह नहीं जानते कि पाकिस्तान में किसी नास्तिक के नाम पर किसी जगह का नाम रखना अस्वीकार्य है और इस्लाम में मानव मूर्तियां प्रतिबंधित है?”

जो समूह भारत-पाकिस्तान संबंध और ‘सिख-मुस्लिम सद्भावना’ की संभावनाओं पर बल देते है, वह हालिया घटनाक्रम पर क्या कहेंगे? बीते दिनों पाकिस्तानी पंजाब की सरकार ने यह कहते हुए शादमान चौक का नाम शहीद भगत सिंह समर्पित करने की वर्षों पुरानी मांग को ठंडे बस्ते में डाल दिया कि भगत सिंह क्रांतिकारी नहीं, बल्कि ‘अपराधी’ और आज की परिभाषा में ‘आतंकवादी’ थे। जैसे ही यह खबर भारत पहुंची, तुरंत विभिन्न राजनीतिक दलों ने पाकिस्तान को गरियाना शुरू कर दिया। परंतु मुझे पाकिस्तान की इस हिमाकत पर कोई हैरानी नहीं हुई। क्या इस इस्लामी देश से किसी अन्य व्यवहार की उम्मीद की जा सकती है?

लाहौर में जिस स्थान पर 23 मार्च 1931 को महान स्वतंत्रता सेनानियों— भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी, वह जगह शादमान चौक नाम से प्रसिद्ध है। इसी मामले में 8 नवंबर को लाहौर उच्च न्यायालय में सुनवाई थी। तब ‘भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन पाकिस्तान’ द्वारा अदालत में दायर एक याचिका पर लाहौर प्रशासन ने जवाब देते हुए कहा, “शादमान चौक का नाम भगत सिंह के नाम पर रखने और वहां उनकी प्रतिमा लगाने की प्रस्तावित योजना को पूर्व नौसेना अधिकारी तारिक मजीद की टिप्पणी के आलोक में रद्द कर दिया गया है।” मजीद मामले में गठित समिति का हिस्सा है और उन्होंने कहा था कि भगत सिंह ने एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी की हत्या की थी, इसलिए उन्हें दो साथियों के साथ फांसी दे दी गई थी।

इसी समिति की रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भगत सिंह “मुसलमानों के प्रति शत्रुतापूर्ण मजहबी नेताओं से प्रभावित थे और भगत सिंह फाउंडेशन इस्लामी विचारधारा और पाकिस्तानी संस्कृति के खिलाफ काम कर रहा है, (और) इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए।” बकौल रिपोर्ट, “फाउंडेशन के अधिकारी जो खुद को मुस्लिम कहते हैं, क्या वह नहीं जानते कि पाकिस्तान में किसी नास्तिक के नाम पर किसी जगह का नाम रखना अस्वीकार्य है और इस्लाम में मानव मूर्तियां प्रतिबंधित है?” मामले में अगली सुनवाई 17 जनवरी 2025 को होगी।

पाकिस्तान में भगत सिंह का रिश्ता केवल लाहौर जेल तक सीमित नहीं है। जिस अविभाजित पंजाब के लायलपुर में उनका जन्म हुआ था, वह भी अब पाकिस्तान में है। लाहौर के ही नेशनल कॉलेज में भगत सिंह के अंदर क्रांति के बीज फूटे थे और ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन भी लाहौर में किया था। यदि इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान भगत सिंह को अपना ‘नायक’ मान लेता, तो ऐसा करके वह अपने वैचारिक अस्तित्व, जिसे ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा मिलती है— उसे प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से नकार देता। पाकिस्तानी सत्ता-वैचारिक अधिष्ठान के लिए भगत सिंह भी एक ‘काफिर’ है।

भारतीय उपमहाद्वीप में इस जहरीले चिंतन की जड़ें बहुत गहरी है। गांधीजी ने अली बंधुओं (मौलाना मुहम्मद अली जौहर और शौकत अली) के साथ मिलकर विदेशी खिलाफत आंदोलन (1919-24) का नेतृत्व किया था। परंतु मौलाना मुहम्मद अली जौहर स्वयं गांधीजी के बारे में क्या सोचते थे, यह उनके इस विचार से स्पष्ट है— “गांधी का चरित्र चाहे कितना भी शुद्ध क्यों न हो, मजहब की दृष्टि से वे मुझे किसी भी चरित्रहीन मुसलमान से हीन प्रतीत होते हैं।” बात यदि वर्तमान पाकिस्तान की करें, तो वह विभाजन के बाद अपने दस्तावेजों, स्कूली पाठ्यक्रमों और अपनी आधिकारिक वेबसाइटों में इस बात का उल्लेख करता आया है कि उसकी जड़ें सन् 711-12 में इस्लामी आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम द्वारा हिंदू राजा दाहिर द्वारा शासित तत्कालीन सिंध पर किए हमले में मिलती हैं। इसमें कासिम को ‘पहला पाकिस्तानी’, तो सिंध को दक्षिण एशिया का पहला ‘इस्लामी प्रांत’ बताया गया है।

जिन भारतीय क्षेत्रों को मिलाकर अगस्त 1947 में पाकिस्तान बनाया गया था, वहां हजारों वर्ष पहले वेदों की ऋचाएं सृजित हुईं थीं और बहुलतावादी सनातन संस्कृति का विकास हुआ था। इसलिए पुरातत्वविदों की खुदाई में वहां आज भी वैदिक सभ्यता के प्रतीक उभर आते हैं, जिसका इस्लाम में कोई स्थान नहीं है। परंतु पाकिस्तान अपनी छवि सुधारने के नाम पर मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, सिंधु घाटी, आर्य सभ्यता, कौटिल्य और गांधार कला से जोडऩे का प्रयास करता है। इसी वर्ष 29 मई को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने कहा था, “पाकिस्तान को अपनी प्राचीन बौद्ध विरासत पर गर्व है।” वास्तव में, यह क्रूरतम मजाक है। जिन इस्लामी आक्रांताओं— कासिम, गजनवी, गौरी, बाबर, टीपू सुल्तान आदि को पाकिस्तान अपना घोषित ‘नायक’ मानता है, जिनके नामों पर उसने अपनी मिसाइलों-युद्धपोतों का नाम रखा है— उन्होंने ही ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित होकर भारतीय उपमहाद्वीप में गैर-इस्लामी प्रतीकों (हिंदू-बौद्ध सहित) का विनाश किया था। इस चिंतन में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। जब जुलाई 2020 में खैबर पख्तूनख्वा में निर्माण कार्य के दौरान जमीन से भगवान गौतमबुद्ध की एक प्राचीन प्रतिमा मिली थी, तब स्थानीय मौलवी द्वारा इसे गैर-इस्लामी बताने पर लोगों ने मूर्ति को हथौड़े से तोड़ दिया था।

पाकिस्तानी राष्ट्रगान (कौमी तराना) का मामला और भी दिलचस्प है। वर्ष 1947 में इस्लाम के नाम पर खूनी विभाजन के बाद शेष विश्व के सामने पाकिस्तान को तथाकथित ‘सेकुलर’ दिखाने के लिए मोहम्मद अली जिन्नाह ने हिंदू मूल के उर्दू शायर जगन्नाथ आजाद द्वारा लिखित एक उर्दू गीत को राष्ट्रगान बनाया था। जिन्नाह की मृत्युपर्यंत लगभग डेढ़ वर्ष तक यह पाकिस्तान का राष्ट्रगान रहा। चूंकि इसे ‘काफिर’ हिंदू ने लिखा था, इसलिए इसका पाकिस्तानी नेतृत्व से लेकर आम लोगों ने भारी विरोध किया और इसपर प्रतिबंध लगा दिया। वर्ष 1952 में हाफिज जालंधर द्वारा फारसी भाषा में लिखित गीत को कौमी-तराना बनाना मुकर्रर हुआ। यह स्थिति तब है, जब इस इस्लामी देश की आधिकारिक राष्ट्रीय भाषा उर्दू-अंग्रेजी है और यहां पंजाबी, सिंधी, पश्तो, बलूची, सराइकी इत्यादि भाषाएं बोली जाती है। फिर भी इसका राष्ट्रगान उस फारसी भाषा में है, जिसे बोलने/समझने वालों की संख्या पाकिस्तान में बेहद सीमित है।

पाकिस्तान में यह हड़बड़ाहट उसके वैचारिक अधिष्ठान के कारण है, जो पिछले 77 वर्षों से अपनी पहचान भारत में जनित और विकसित सांस्कृतिक जड़ों से काटने और मध्यपूर्व-अरब देशों से जोडऩे का असफल प्रयास कर रहा है। इसलिए इस जड़-विहीन पाकिस्तान को उसके इस्लामी होने के बावजूद मध्यपूर्वीय देश, सम्मान या बराबर की नजर से नहीं देखते है। पाकिस्तान में एक बड़े भाग द्वारा शहीद भगत सिंह का विरोध भी अपनी मूल जड़ों को नकारने की विचारधारा से ही प्रेरित है।

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